इकदास्तां ,भाग 5
उसने देखा विजय ने पानी से गोली गटकी,फिर चाय पीने लगा।
सुबह सुबह खाली पेट गोली,वो मन ही मन बड़बड़ाई थी।
वो खामोश चाय पीता रहा था।
तभी विजय की माँ ने नीचे से आवाज़ दी थी,"रजनी, उठ गई हो तो जरा नीचे आना बेटा"।
जी आई।।
परिस्थितियाँ इंसान के बोल चाल के ढंग को भी बदल देती हैं, यही सोचती हुई वो नीचे आ गई थी।
सब सोये ही हुए थे अभी।बस माँ ही उठी थी हुई थी शायद मंदिर भी जा आई थी।
अरे रजनी, चाय बना दूं, बेटी, विजय उठ गया क्या?
उठे हुए हैं उन्होंने चाय बनवाइ थी,मैने दे दी है उन्हें बनाकर।
अच्छा किया बेटी, सुन रजनी मुझे बहुत जरूरी बात करनी है तुमसे।
मेरा कोई भरोसा नहीं है,आज हूँ कल न भी रहूँ, अपना घर संभाल लो बेटी, विजय के साथ चली जाओ।
किसके साथ जाऊँ माँ जी, जो मुँह से बोलता भी नहीं है।
शुरू में थोड़ा दिक्कत होगी बादमें सब ठीक हो जायेगा बेटी। तूं भी तो इतने सालों से इसी के इंतजार में ही बैठी है ना।
जब आप की तकदीर में ही बर्बादी लिखी हो माँ तो इंतजार कैसा और बिना इंतजार कैसा। रजनी की आँखें छलछला गई थी।
मन माड़ा न कर मेरी बच्ची ,हालात जल्द ठीक हो जायेंगे। उसने रजनी के सिर पर हाथ रखा था।
चल खड़ी हो तैयार हो, नहाले मैं चाय बनाती हूँ। कपड़े हैं न बदलने के लिए।
रजनी नहाकर निकली तो माँ ने चाय बना ली थी।
ले ऊपर ले जा, दोनो पी लो।
चाय लेकर रजनी उपर आ गई थी।एक प्लेट में थोड़ी बरफी और बिस्किट भी थे।
चाय पी लें,उसने लेटे हुए विजय को क हा था।
विजय ने चाय पकड़ ली थी,बरफी और बिस्किट की तरफ देख कर बोला ,ये नहीं चाहिए।।
कुछ पल वहीं खड़ी रही रजनी कल से भूखी थी और पता नहींकितनी देर और ऐसे ही रहना पड़े।वो चाय और बिस्किट वाली प्लेट लेकर अंदर आ गई थी। उसने बरफी और बिस्किट खाकर चाय पी थी।अपने लंबे गीले बालों को सुखा ही रही थी कि माँ उपर आ गई।।
विजय क्या क्या सामान लेकर जाना है, तुझे साथ में।तूं और रजनी दोनो मिलकर लिख लो, ताकि यहीं बाजार से ले जा सको।
कैसा सामान माँ?
अरे बहू को साथ लेकर जायेगा, तो सामान की जरूरत तो पड़ेगी ही।रसोई का सामान, बिस्तर वगैरह।
अभी कैसे ले जा सकता हूँ माँ,एक ही कमरा है,दिक्कत होगी वहाँ पर।
मैं चलता हूँ भाई तेरे साथ, पहले कमरा ढंग का देख लेते हैं। भाई ने उपर आते हुए कहा था।
पर भाऊ जी।
पर वर कुछ नहीं विजय अब ये बात तो तुझे मेरी माननी ही पड़ेगी।
उठ नहा ले ,रोटी खाकर चलते हैं, पहले कमरा ही देख आते है।सामान का पता लग जायेगा , तूं वहीं रह जाईयो, मैं और माँ फिर बहू को ले आयेंगे। तब तक ये भी अपनी नौकरी का हिसाब वगैरह कर लेगी, कल तो मैं जल्दी में ले ही आया था इसे।
निरूत्तर सा विजय खामोश ही रहा था।
माँ बना दे रोटी, फिर हम निकल जायें ठंडे ठंडे।
और हाँ विजय दवाई से कुछ फर्क दिखा क्या?
जी पहले से ठीक हूँ।
चल खड़ा हो, नहा ले तैयार हो जा।
अनमना सा विजय उठ कर बाथरूम में घुस गया था। भाई की किसी बात को नकार ही नहीं पाता था। ये गुण उसमें ही नहीं सभी भाईयों में ही था।
माँ आप रजनी को उसकी जरूरत का सामान दिलवां दे जाकर ,कुछ कपड़े लते भी दिलवा देना। उसने नोटों की एक गडडी माँ की तरफ बढ़ा दी थी।
माँ ने चुपचाप पैसे अपने आँचल में समेट लिए थे।
रजनी बहू, बाजार से फारिग होकर अपने मायके चली जाना,वहाँ का काम समेट ले,और अपने कागच पत्र उठा लाना।हम कल तुझे ले आयेंगे
भाई साहब, पहले अपने भाई से तो पूछ लें, मेरी लगी लगाई नौकरी है।आप समझते हैं।
तूं मेरी बेटी जैसी है ,रजनी, चिंता न कर।
रजनी पुतर टाईम लगेगा, पर सब जल्द ही ठीक हो जायेगा।
रजनी खामोश रह गई थी,उसे ये सब इतना आसान नहीं लग रहा था।पर इन लोगों की बात मानना भी उसकी मजबूरी ही थी। सात साल हो गए थे। लोगों के प्रशनों का कोई जवाब नहीं होता था।क ई बार तो बहने भी सुना देती थी, अरे हमारी दीदी तो इतनी शरीफ है, वरना आजकल तो चिठ्ठी पतरी का जमाना है, मैं तो मेरे मियां को रोज इतने खत लिख दूं कि वो अगले दिन ही मुझे लेने आने पर मजबूर हो जाये।
मन मसोस कर रह जाती थी,क्या कहे, किससे कहे?
कभी ढ़ंग का सूट पहनने को मन करता तो छोटी बहने झट ले लेती,
"बहन तूनें जाना ही कहाँ हैं" ये तो मैं पहन लेती हूँ।
बस सरक रही थी ज़िंदगी,और अब ये नया झमेला, पता नहीं क्या परिणाम होगा।
माँजी और जेठ नीचे चले गए थे। रजनी कमरे में ही थी। विजय नहाकर अंदर आने की बजाय नीचे ही चला गया था। जाने क्या सोच कर रजनी भी नीचे चली गई थी।
बेचारी बूढ़ी औरत है,इतनी गरमी में कैसे खाना बनायेगी। मैं जाकर मदद कर देती हूँ।
जाकर देखा तो माँ भिंडी साफ कर रही थी। रजनी ने फटाफट आटा लगा कर सब्जी बना दी थी। साथ में धनिया पोदीने की चटनी भी बना दी थी।शुरू में सास ने बताया था कि विजय को सब्जी के साथ चटनी जरूर चाहिए होती है।
माँ जी, खाना तैयार है।
फटाफट परोस दिया था उसनें, माँ ने दोनों भाईयों को खाना दे दिया था।
जेठ ने खाने की बहुत तारीफ की थी। विजय आधी रोटी खाकर ही उठ गया था। बस लस्सी में चटनी डाल कर लस्सी पी ली थी।
रोटी क्यों नहीं खाई?
भाई ने पूछा था।
मैं सुबह कभी खाता ही नहीं, दोपहर को ही खाता हूँ।आदत ही नह़ी है सुबह खाने की।
चल चलते हैं।
मैं जाकर देख लेता हूँ, भाई साहब, आप क्यों परेशान होते हैं?
मैं आज परेशान नहीं हूँ, परेशान तो छह सालों से हूँ, मेरे भाई, क्या हालत हो गई है तेरी, शीशे में चेहरा देखा है कभी अपना।
विजय उपर से अपनी दवाई का लिफाफा उठा लाया और अपना बैग भी।
दोनों भाई निकल गए थे, रजनी ने सासको नाश्ता करा खुद भी दो रोटी खा ली थी।आज पहली बार उसने चटनी को लस्सी में डालकर पीया था। एक अजीब सा स्वाद था। शायद अच्छा है, वह मन ही मन बड़बड़ाई थी।
तभी दोनों जेठानियाँ अपने बच्चों को लेकर आ गई थी। रजनी उन सब से मिलकर उपर आ गई थी। उसकी सास भी उस के पीछे आ गई थी।
माँ फिर मैं चली जाऊँ अपने घर?
नहीं री, पहले बाजार चलते हैं, फिर मैं तुझे बस पर बैठा आऊँगी।अकेले कहीं नहीं जाना।
रजनी का दिमाग छह वर्ष पीछे पहुँच गया था।जब वो बीमार अवस्था में,कैसे बस अड्डे पहुँची थी,और क्या हालत थी उसकी।
क्या हुआ रजनी?
कुछ नहीं माँ , मैं सोच रही थी आप खरीद ले जो खरीदना है, मैने तो कुछ लेना नहीं है।
क्यों नहीं लेना तूनें, अपने घर का सारा सामान तूने अपनी मर्जी से लैना है, तूने रहना है, वहाँ,क्या चाहिए, ये तो तुझे ही देखना है ना।
मेरे दहेज़ में जो बर्तन वगैरह थे, वो ही सब ले जाऊँगी, अब अलग से क्या खरीदना?
वो तो है ही बेटी पर चल कुछ औरभी खरीद ले।वो गाँव हैं,और गाँव में सारा सामान नहीं मिलता।
खुले बालों की चोटी बना कर वो सास के साथ बाजार चली गई। जरूरत का सारा सामान सास याद दिलाती गई और वो नोट करती गई। सब सामान बंधवा कर सास ने उसे तीन सूट भी खरीद कर दिए थे। सारा सामान रिक्शे पर लदवा कर घर ले आई थी। उसी रिक्शे से सास उसे बस अड्डे छोड़ आई थी। बस में बैठी रजनी तमाम रास्ते चिंता के समन्दर में गोते लगाती रही थी।
बस अड्डे पर उतर कर सबसे पहले वो अपने सिलाई केन्द्र गई थी। वहाँ अपने जीवन ओ दोबारा शुरू करने की खबर ट्रस्टी मैडम को सुनाई तो उदास तो हो गई वो पर रजनी के लिए खुश भी थी।उन्होंने रजनी का सारा वेतन और एक सिलाई मशीन रजनी को तोहफे के तौर पर दी थी।
आँसू भरी आँखों से रजनी ने कहा था," मैडम इस की क्या जरूरत है, अभी तो किस्मत का कोई भरोसा नहीं कहाँ ले जाये"।
दुखी मत हो रजनी, तूने यहाँ मेरी बेटी की तरहं काम किया है,ज़िंदगी के किसी भी मोड़ पर मेरी जरूरत हो तो, बेझिझक चली आना बेटी।
घर तक का रिक्शा करवा कर रजनी को विदा किया था उन्होंने। भरेमन से रजनी घर पहुँची थी।
माँ उसे देखकर हैरान और परेशान दोनों हैं थी। बहनें भी कुछ परेशान ही हो गई थी। रजनी ने रिक्शे वाले भाई को ही कहकर मशीन अंदर रखवाई थी।
क्या हुआ रज्जो ,तूं वापिस घर , वो इस समय सब ठीक तो है ना। या विजय ने इस बार भी कोई गड़बड़ कर दी।
जिस के भाग्य ने ही गड़बड़ कर दी हो उसके साथ दूसरा कोई क्या गड़बड़ करेगा माँ? उसनें माँ को सारी बात बता दी थी।
तो यहाँ तो तुम अपने कागच उठाने आई हो दीदी, बहन ने कहा था।
यही समझ लो अभी तो।
अरे ठीक है न दीदी, अब आ ही गई हो तो रोटी तुम ही बना लो , वरना माँ मेरे पीछे पड़ी थी कि मुझे खाना बनाना सीखना चाहिए। बहन अब अपने घर चली गई है।
बिना कुछ बोले रजनी ने खाना बनाना शुरू कर दिया था। सबको खिला कर उसने भी खाना खाया था। बर्तन समेट कर ,छत पर बिछी चारपाई पर पसर गई थी। कल का दिन ,कैसा होगा, भविष्य की चिंता मुँह फाड़े उसके सामने खड़ी थी। पता नहीं सोचते सोचते कब नींद ने अपने आगोश में ले लिया था। सुबह किसी के झिझोंड़ने से नींद खुली थी।
सामने उसकी पक्की और प्रिय सहेली कमलेश थी।
तूं इतनी सुबह सुबह?
सुबह नहीं है महारानी देख सात बज गए हैं, धूप सिर पर खड़ी है।
आँखें मलते हुए रजनी को अब जैसे धूप की चूभन महसूस हुई थी।
मैं इतनी देर तक सोती रही,और मुझे किसी ने जगाया नहीं।
चाची तो अब भी मना कर रही थी, कह रही थी, सोने दे कम्मो, पता नहीं बेचारी की कब आँख लगी हो। अच्छा मैं ये ब्लाऊज सिल कर लाई हूँ, मास्टरनी, बता कैसा है?
अरे तूनें अभी नया ही सिल लिया, पहले पुराने कपड़े पर सिल लेती।
ये मुझे किसी को देना था बहन,और शगुन की चीज तो न ई ही देते है ना।
ला दिखा, अरे ये तो बहुत ही प्यारा रंग और प्यारा डिजाइन है, सच में तूनें तो कमाल कर दिया कम्मो।
ये मेरी सबसे प्यारी सहेली के लिए जो है,तो कमाल तो अपने आप ही होना था।
मतलब?
जो तूं समझ रही है, वहीं है मतलब, यानि तेर लिए ही है।
पर तूनें?
रजनी उसकी आर्थिक स्थिति को अच्छी तरहं से जानती थी।
मत घबरा कभी बहुत पहले बचत करके मैंने ये साड़ी अपने लिए खरीदी थी। मेरे तो काम नहीं आई,पर रब से दुआ करूंगी, मेरी बहन को पहनी ये साड़ी फले।
पर कम्मो
पर वर कुछ नहीं, रजनी, ये ब्लाऊज पहन कर देख ले, ताकि गर कोई दिक्कत हो तो मैं तेरी मदद से इसे ठीक कर सकूं।
भीगी पलकों से रजनी ने वो ब्लाउज ले लिया था। उसने पहन कर देखा तो उसकी भीगी आँखें तर हो गई।
कम्मो मैं ऐसा सुंदर ब्लाउज अपने लिए नहीं सिल सकती थी,कमाल कर दिया तूंने।
शिष्या तो तेरी ही हूँ ना। कमलेश हँसी थी।
रजनी ने उसे गले से लगा लिया था।
सुन रजनी जिस दिन जीजाजी के पास जाये न यही साड़ी पहन कर जाना। मैं मैचिंग चूडिय़ां और बिंदी भी लायी हूँ।
कम्मो अभी कोई सपना मत सजा, अभी तो सफ़र शुरू भी नहीं हुआ है,और सुन ,शुरू हो भी गया न तो ये कोई आसान सफ़र नहीं है,इसका अंदेशा तो मुझे विजयकी शक्ल देखकर ही हो गया था।
रब रब कर बहन, तुझे गर्म लू भी न लगे।
हँस दी थी रजनी।
चल चाय पीते हैं नीचे।
नहीं मैं पहले इस की तुरपाई कर लूं, साड़ी तो तैयार कर दी है। चाची कह रही थी कि तेरे को लेने आज ही आयेंगे।
एक लंबी साँस ली थी रजनी ने।
दोनों नीचे आ गई थी। कमलेश बाहर चली गई थी।
रजनी हाथ मुँह धोकर अंदर आई तो माँ ने उसकी पंसद की कच्चे दूध की तीखी पती की चाय दी थी उसे।
रज्जो, तेरे पास ढंग का एक सूट भी नहीं है,जरा बैठ के दोतीन सूट सिल ले।मैने कमलेश को भी बोला है। वो भी आ जायेगी दोनों मिल कर सिल लो।
क्या करना है माँ सूटों का?ठीक हैं जैसे भी हैं।
ऐसे नही बोलते बेटी, रब सब ठीक करेगा।
क्या बनाना है माँ?
कुछ नहीं, मैने सूट के कपड़े निकाले हैं,तूं सिल ले।
तभी कमलेश भी आ गई थी।
आजा रज्जो सूट काटें।
एक फीकी सी मुस्कान रजनी के चेहरे पर आई और चली गई।
वो उठ कर कमलेश के साथ पिछले कमरे के सामने वाले बरामदे में चली गई थी। पीछे पीछे माँ भी आ गई थी। चार सूटों का कपड़ा निकाल दिया था।
मैं इतने चमकीले सूटों का क्या करूंगी माँ?
रब करे तूं इससे भी चमकीले सूट पहने पुतर।
चल कमलेश दोनों बहनें मिल कर फटाफट सिल लो,तुम्हारी रोटी यहीं दे जाऊँगी मैं।
रजनी शुन्य में घूरती हुई कपड़ा काट रही थी।
रज्जो तेरी नज़र कहाँ है? गलत कट जायेगा।
हम्म, शायद वो कहीं से वापिस आ गई थी।
बारह बजे तक दो सूट तैयार हो गए थे। हर आहट पर रजनी की आँखेंं उठ जाती थी। पता नहीं क्यों उसके हाथ शिथिल हो गए थे।
रज्जो मैं ये पाँच लिफाफे लाई हूँ,तूं हर दूसरे दिन मुझे चिठ्ठी लिखना, कुछ मत छिपाना बहन।अपना पता भी लिख देना।
तुझ से क्या छिपा है कम्मो। बहुत अजीब सा डर लग रहा है।
क्यों?
मैने तुझे बताया न कि ये बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि मैं उनके साथ जाऊँ।बंदें ने एक शब्द भी नहीं बोला।
सब ठीक होगा रज्जो उसने मना भी तो न हीं किया न कि वो तुझे नहीं ले जायेगा। ऐसा क्यों सोचती है, तेरी गलती क्या है? इतनी सुंदर शहजादी है।
रजनी ने इस तरह़ कम्मो को देखा था मानों उसे उसकी बात पर यकीन ही न हो।
तभी माँ ने आकर कहा था मैने रात को ही रीठा भिगो दिया था।रज्जो चल उठ के बाल धो ले और नहा ले।
बाद में नहा लूंगी माँ।
माँ एक बात पुछू अगर इस बार भी उसनें मुझे नहीं रखा तो?
तूं पागल हो गई है रज्जो, वो खुद आये हैं तुझे लेने, तूं नहीं गई उनके घर।
तभी बाहर से बाऊजी की जोरदार आवाज़ आई थी, अरे रज्जो की माँ,"कुछ चाय रोटी का इंतजाम करो, जसमीत बाबू आये हैं।
आई जी आई।
रज्जो नहा ले जाकर, कमलेश तेरी जिम्मेदारी है ये सब।
चाची चिंता न कर।तूं जा उधर देख, मैं ,इधर सब संभाल लूंगी।
नहाकर साड़ी पहन ले रज्जो, मैने सब तैयार करके प्रेस करा दिया है।
नहीं कम्मो मुझे पहले सब देखना है,अब मैं पहले की तरहं कमजोर नहीं पड़ूँगी। मुझे खुद के लिए खुद की जगहं बनानी है।
रजनी ने नहा कर कपड़े बदल लिए थे। कम्मो ने नये सूट प्रेस करके उसके बैग में जमा दिए थे।साड़ी का डिब्बा अलग से रख दिया था।
रजनी ने उसे बुलाकर सौ रूपये उसके हाथ में दबा दिए थे।
सिलाई सैंटर छोड़ना नहीं कम्मो, हर रोज जाना। ये काम आयेंगे तेरे।
पर तेरे पास इतने पैसे? फिर तेरे को भी तो जरूरत होगी।
कल हिसाब करवा लिया था सैंटर से, इस बार माँ बाऊजी को पैसे नहीं दिऐ। मेरे पास अभी भी तीन सौ रूपये बचे हैं। मुझे जरूरत पड़ेगी तो मैं संभाल लूंगी।मैडम ने एक नयी सिलाई मशीन भी दी है।साथ लेकर जाऊँगी। पता नहीं कब ज़िंदगी का कौनसा कर्ज अदा करना पड़ जाये।
चुप कर पर पर पागल है तूं, जीजाजी सरकारी नौकरी में है।
मेरे बाऊजी भी जमींदार है,पर सबने अपनें नसीबों का खटया खाना है कम्मो।
शाम वाली बस से अपने जेठ के साथ सुसराल आ गई थी।कमलेश को छोड़कर किसी की भी आँखें नम नहीं थी। माँ की आँखों में भी सिर्फ दुआएं और होठों पर बस आशीर्वाद ही था। सूनी खुष्क आँखों से रजनी विदा हो गई थी।माँ ने उसकी मुठ्ठी में पचास रूपये दबा दिए थे।शाम गहराते गहराते रजनी अपनी सुसराल पहुँच गई थी।
जसमीत के जाते ही विजय ने शराब खरीदी, और अपने पुराने कमरे पर ही आ गया था। तीन पैग पी चुकने के बाद भी आज प्रीत उसके सामने नहीं आई थी।
प्रीत कहाँ हो तुम ,पागल हो जाऊँगा मैं। उसने एक गिलास और भर लिया था। वो जैसे ही आँखें खोलता ,प्रीत की जगहं उसे उदास और सूनी आँखों वाली रजनी दिखाई देती थी। बोतल खाली हो गई थी,विजय चारपाई पर लुढ़का हुआ पड़ा था। सीढियों के खुले दरवाजे से बिल्ली ऊपर आई थी उसने चारों तरफ देखा, फिर विजय को देखा। जाने क्या सोचकर बिल्ली भी वहीं बैठ गई थी। आज उसनें दूध भी नहीं पिया था।
क्रमशः
कहानी, "इक दास्तां"
लेखिका, ललिता विम्मी
Rohan Nanda
16-Dec-2021 04:23 PM
इंट्रेस्टिंग
Reply
Seema Priyadarshini sahay
06-Dec-2021 05:56 PM
बहुत खूबसूरत भाग
Reply
Chirag chirag
02-Dec-2021 06:38 PM
Very nice written
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